भक्ति काल में रामभक्त कवियों में जो स्थान भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी का है वही कृष्णभक्त कवियों में सूरदास जी को प्राप्त है। तुलसीदास जी अपनी अमर कृति ‘रामचरितमानस‘ के कारण जगप्रसिद्ध है वही भगवान कृष्ण के मनोरम छवि का अनुपम वर्णन करने वाली “सूरसागर” सूरदास जी की अनुपम कृति है। भारतीय साहित्य में सूरदास जी को कृष्णभक्ति काव्य का प्रमुख स्तंभ माना जाता है यही कारण है की साहित्य जगत में वात्सल्य रस से ओतप्रोत रचना करने वाले सगुण धारा के प्रमुख कवि के रूप में प्रतिष्ठित सूरदास जी को वर्तमान में अत्यंत प्रासंगिक माना गया है। आज के इस आर्टिकल के माध्यम से हम आपको सगुण धारा के महाकवि सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Biography in Hindi) सम्बंधित जानकारी प्रदान करने वाले है।
इस आर्टिकल के माध्यम से आपको सूरदास का जीवन परिचय, सूरदास की रचनाएँ एवं सूरदास के काव्य जीवन सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की जाएगी।
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सूरदास का जीवन परिचय, संक्षिप्त बिंदु
यहाँ आपको महाकवि सूरदास के जीवन परिचय सम्बंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की जानकारी प्रदान की गयी है :-
नाम (Name) | सूरदास |
जन्म (Birth) | 1478 ईस्वी |
जन्म स्थान (Birth Place) | रुनकता, किरोली |
मृत्यु (Death) | 1580 ईस्वी, पारसौली |
पिता का नाम (Father Name) | रामदास सारस्वत |
पत्नी का नाम(Wife Name) | अविवाहित |
सम्बंधित काल (Time-period) | भक्ति काल |
सम्बंधित भक्ति धारा (Related devotional stream) | कृष्णभक्ति धारा |
काव्य कृतियां (poetic works) | सूरसागर, साहित्य लहरी, सूरसारावली, नल-दमयन्ती, ब्याहलो |
सूरदास का जीवन परिचय
सूरदास जी के जन्म को लेकर विभिन विद्वानों के मध्य मतभेद है। कुछ विद्वान सूरदास की का जन्म सीही नामक ग्राम तो कुछ रुनकता, किरोली नामक गाँव बताते है हालांकि अधिकतर विद्वान इस बात को लेकर सहमत है की सूरदास जी का जन्म रुनकता, किरोली नामक गाँव (वर्तमान जिला आगरा) में 1478 ईस्वी में हुआ था। सारस्वत ब्राह्मण परिवार से सम्बन्ध रखने वाले सूरदास जी के पिता का नाम रामदास सारस्वत था। अपने बचपन के दिनों का अधिकांश भाग सूरदास जी द्वारा गऊघाट पर ही बिताया गया। सूरदास जन्म से ही अँधे थे परन्तु उनकी रचनाओं में जिस प्रकार से उन्होंने विभिन वर्णन किये है उस आधार पर अधिकतर विद्वान सूरदास के जन्मांध होने पर आशंका व्यक्त करते है।
सूरदास के गुरु पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्लभाचार्य जी थे जिन्होंने सूरदास को पुष्टिमार्ग की शिक्षा प्रदान कर कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाया। कहा जाता है की सूरदास द्वारा रचित पद से खुश होकर बल्लाभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कार्यभार सौपकर कृष्ण भक्ति की दीक्षा दी। इसके पश्चात कृष्णभक्ति में लीन सूरदास जी द्वारा अमर-कृति सूरसागर की रचना की गयी। सूरदास जी जीवन भर कृष्ण भक्ति में लीन रहे यही कारण है की उन्होंने जीवन भर विवाह नहीं किया।
सूरदास की रचनाएँ
भक्ति काल में सूरदास जी द्वारा भगवान श्री कृष्ण की बाल रचनाओं रचनाओं का अत्यंत सूक्ष्म और मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है जिसके आधार पर कोई भी उनके जन्मांध होने पर संदेह व्यक्त कर सकता है। सूरदास की रचनाओं में भावात्मक पक्ष और कलात्मक पक्ष को मानव हृदय की कोमल भावनाओं के साथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण का जैसा वर्णन मिलता है वैसे कही अन्यत्र मिलना संभव प्रतीत नहीं होता। सूरदास जी ब्रजभाषा में ही अपनी रचनाएँ करते थे यही कारण है की उन्हें ब्रज भाषा का प्रमुख कवि माना जाता है।सूरदास द्वारा रचित प्रमुख ऐतिहासिक रचनाएँ इस प्रकार से है :-
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- सूरसागर(Sursagar)- सूरदास द्वारा रचित सूरसागर भक्ति काल में कृष्ण भक्ति का अनुपम ग्रंथ है। श्रीमद् भागवत गीता से प्रभावित सूरसागर में भगवान श्री कृष्ण के बाल जीवन की झाँकियों का सजीव वर्णन, उद्धव- गोपी संवाद, गोपियों संग रासलीला का अनुपम वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ में वर्तमान में 8000 से 10000 पद है वही कई विद्वान मानते है की मूल ग्रंथ में 1 लाख से भी अधिक कृष्ण पद रचे गए थे। आधुनिक युग के विभिन आचार्यों के द्वारा इस ग्रन्थ की भूरी-भूरी प्रशंसा की गयी है।
- साहित्य-लहरी (Sahitya-Lahri)- श्रृंगार रस की प्रधानता से युक्त साहित्य-लहरी सूरदास जी का लघु-ग्रन्थ है जिसमे 118 पद है। इस ग्रंथ में सूरदास जी द्वारा स्वयं के वंश का सम्बन्ध पृथ्वीराजरासो के रचियता चंदरबरदाई के साथ बताया गया है।
- सूरसारावली(Sursaravali)-1107 छंदो से युक्त सूरसारावली एक “वृहद् होली” गीत है जिसकी रचना सूरदास जी द्वारा 67 वर्ष की उम्र में की गयी।
- नल-दमयन्ती(Nal-Damyanti)- सूरदास रचित नल-दमयन्ती ग्रन्थ में महाभारत काल से सम्बंधित कथा संग्रह है।
- ब्याहलो(Byahlo)- इस ग्रन्थ को सूरदास जी के 5 प्रमुख ग्रंथों में शामिल किया जाता है।
सूरदास जी की साहित्यिक धरोहर एवं भाषा शैली
सूरदास जी भारतीय साहित्य का अनमोल रत्न है। भक्ति काल में अग्रणी कवियों में शुमार सूरदास जी की भाषा शैली माधुर्य से ओतप्रोत है जो की कर्णप्रिय है एवं मानव हृदय को भक्ति से सरोबार कर देती है। ब्रजभाषा में लिखित अपनी रचनाओं में सूरदास जी द्वारा सरल एवं आसान भाषा का प्रयोग किया गया है जिससे की सूरदास जी जनमानस के मस्तिष्क पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ जाते है। काव्य मुक्तक शैली से प्रभावित सूरदास जी की भाषा मधुर, वात्सल्य एवं मर्मस्पर्शी है जहाँ व्यंग वक्रता का भी प्रयोग देखने को मिलता है। महान् काव्यात्मक प्रतिभा से संपन्न सूरदास जी द्वारा अपनी रचनाओं में वात्सल्य रस को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया गया है वह अतुलनीय है। विरह-वर्णन और वात्सल्य रचना से ओतप्रोत सूरदास की रचनाएँ कृष्ण भक्ति काव्य में सबसे प्रमुख स्थान पर आती है।
सूरदास जी द्वारा अपनी रचनाओं में प्रयुक्त भाषा शैली के सम्बन्ध में विभिन साहित्यिक विद्वानों द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है की सूरदास जी जन्मांध नहीं थे। सूरदास द्वारा अपनी रचनाओं में विभिन मानवीय परिस्थितियों एवं रंगो का सजीव वर्णन मिलता है। अपने अमर ग्रन्थ सूरसागर के कारण सूरदास जी पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सूरसागर सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्ध और प्रभावी कृष्ण भक्ति काव्य ग्रन्थ है।
सूरदास का जीवन-सम्बंधित महत्वपूर्ण बिंदु
सूरदास की को जन्मांध माना जाता है। हालांकि अपनी रचनाओं में सूरदास जी द्वारा जिस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रेम का सजीव वर्णन, कृष्ण के बाल-जीवन की नटखट लीलाओं, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता, विविध प्रकार के रंगो एवं मानवीय जीवन के अन्य पक्षों का जिस सजीवता के साथ वर्णन किया है उस आधार पर उन्हें जन्मांध मानने में कठिनाई प्रतीत होती है। हिंदी साहित्य के प्रमुख कवियों में अग्रणी स्थान रखने वाले डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा भी इस सम्बन्ध में सूरदास के अक्षरार्थ को प्रधान ना मानने की बात कही गयी है जिसका अर्थ है की सूरदास द्वारा स्वयं को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहने को वास्तविक ना मानकर भावार्थ भी मान सकते है। इसके अतिरिक्त सूरदास जी की जन्मांध होने के बारे में कई कथाएँ भी प्रचलित है।
जिसमे मदनमोहन नामक युवक (स्वयं सूरदास जी) द्वारा स्वयं के आँखों में लोहे की गर्म सलाखें डालने का वर्णन मिलता है। हालांकि इन कथाओं के बारे में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है ऐसे में इनकी वास्तविकता का अनुमान कठिन प्रतीत होता है। जीवन भर कृष्ण भक्ति में लीन सूरदास जी द्वारा जीवन भर अविवाहित जीवन ही जिया गया। सूरदास जी की मृत्यु 1580 ईस्वी (विक्रमी संवत् के अनुसार 1642 संवत्) में गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में हुयी। सूरदास द्वारा रचित कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत रचनाएँ आज भी भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डालती है।
सूरदास का जीवन परिचय सम्बंधित अकसर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
सूरदास के जन्म के सम्बन्ध में विभिन विद्वानों में एकमत नहीं है। हालांकि बहुमत विद्वान इस बात को लेकर सहमत है की सूरदास जी का जन्म रुनकता,किरोली नामक गाँव (वर्तमान जिला आगरा) में 1478 ईस्वी में हुआ था। इनके पिता का नाम रामदास सारस्वत था।
सूरदास जी के गुरु पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्लभाचार्य जी थे जिन्होंने सूरदास को पुष्टिमार्ग की शिक्षा प्रदान की थी। सूरदास के रचना पदों से प्रभावित होकर श्री वल्लभाचार्य द्वारा इन्हे श्रीनाथ मंदिर का कार्यभार भी सौंपा गया था।
सूरदास जी भक्तिकाल के प्रमुख कवि माने जाते है। सूरदास जी द्वारा विभिन ग्रंथो की रचना की गयी परन्तु वर्तमान में सूरदास रचित 5 प्रमुख ग्रंथ ही उपलब्ध है :- सूरसागर(Sursagar), साहित्य-लहरी, सूरसारावली, नल-दमयन्ती एवं ब्याहलो।
ऊपर दिए गए आर्टिकल के माध्यम से आपको सूरदास का जीवन परिचय सम्बंधित जानकारी सभी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गयी है। ऊपर दिए गए आर्टिकल की सहायता से आप सूरदास का जीवन परिचय सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्राप्त कर सकते है।
सूरदास जी की काव्यभाषा काव्य मुक्तक शैली से प्रभावित मधुर, वात्सल्य एवं मर्मस्पर्शी है जहाँ व्यंग वक्रता का भी प्रयोग देखने को मिलता है। सूरदास जी द्वारा ब्रजभाषा में रचित विभिन कृष्णभक्ति ग्रन्थ जनमानस के मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ देते है यही कारण है की सूरदास जी को कवियों में शिरोमणि भी माना जाता है।
सूरदास जी के जन्मांध होने पर विभिन कवियों के द्वारा संदेह व्यक्त किया गया है। इसका कारण उनकी रचनाओं में श्रीकृष्ण-राधिका के प्रेम का सजीव वर्णन, मानवीय परिस्थितियों का अद्भुत चित्रण, वात्सल्य प्रेम एवं रंगो का वर्णन है जिसके कारण सूरदास के जन्मांध होने पर संदेह व्यक्त किया जाता है। विभिन मतों के आधार पर सूरदास के जन्मांध होने की पुष्टि करना संभव प्रतीत नहीं होता।
अमर भक्ति कवि सूरदास जी की मृत्यु 1580 ईस्वी में गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में हुयी।